"सिंधु सभ्यता" पर सरसरी नज़र - मोहनजो दड़ो 

"सिंधु सभ्यता" पर सरसरी नज़र - मोहनजो दड़ो 


हाई स्कूल की किताबों में मोहन जोदड़ो हड़प्पा सभ्यता पड़ने के बाद नहीं सोचा था की मोहन जोदड़ो नगर पर भविष्य में फिल्म भी बन सकती है।  व्यापार ,पशु प्रेम, नाचना-गाना , सामूहिक उत्सव ,धर्म ,लोभ लालच और वो प्यासे कौवे व मटके की कहानी, सिंधु सभ्यता की खोज खुदाई में निकले ठीकरे  सब बयां करते हैं ऐसा किताबों से  पता चला फिर थोड़ा और पढ़कर अच्छा लगा इसलिए बचपन से ही सिंधु घाटी की सभ्यता को पड़ने में मजा आने लगा मोहन जोदड़ो के बारे खोज करने वालों के मत के मत अलग-अलग हैं इसलिए कहानी अभी तक उलझी है की सिंधु सभ्यता  की असलियत क्या है । लेकिन बहुत अच्छा हुआ की इस सभ्यता पर  फिल्म उतनी उलझी  हुई नहीं बनाई गई ,सीधे-सीधे डायलॉग से फिल्म समझ पाना संभव हो गया।  बात कहानी की करें तो वही बॉलीवुड की कहानी है  जिसे फिल्म बनाने वाले  और खासकर देखने वाले पसंद करते आये हैं और  देखना भी चाहते हैं हैप्पी एंडिंग ।  प्यार के लिए समाज के लिए लड़ने वाला हीरो ,प्यार करने वाली हिरोइन आशुतोष गोवारिकर की लगभग हर फिल्म मे मिले हैं, चाहे बात फिल्म स्वदेश  की हो या लगान की, जोधा अकबर के बाद इतिहास पर बनाई उनकी यह दूसरी फिल्म है जो दर्शकों को अपनी और खींचने की कसौटी पर खरी उतरी है जिन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता के बारे में नहीं पड़ा तो वे लोग और खासकर इतिहास प्रेमी इससे रूबरू जरूर होंगे । इतिहास की ओर  लोगों को ले जाने वाली फिल्में  बनाने वाले गोवारिकर अपने काम में सफल दिखे उस समय की सभ्यता  से  लोगों को परिचित कराने का काम भी तो अच्छा ही है.... बात अगर फिल्म में कास्टिंग की करें तो वह और भी बेहतर हो सकती थी, जोधा अकबर में ऋतिक रौशन का काम तारीफ के काबिल था इसलिए  मोहन जोदड़ो में उनका होना संभव था ही लेकिन ,बॉलीवुड में अपना डेव्यू करने वाली फिल्म की नायिका पूजा हेगड़े  परदे पर दिखी तो खूबसूरत लेकिन अपने रोल को अच्छे से नहीं निभा पाई कही-कही क्लोज-अप  शॉट में वे ऐसी लगी जैसे मोहेंजोदड़ो नहीं आज का कोई विज्ञापन देख रहे हों । वैसे भी आप उन्हें देखकर सोचेगे  की इसको कहीं देखा है, और फिर आपके सामने आपको गोरा करने का वादा करने वाली  एक फेस क्रीम  का विज्ञापन सामने आ जायेगा और आप पूजा  हेगड़े को पहचान जायेंगे ,वैसे उन्होंने ज़िम में खूब पसीना बहाया लड़कियां अगर स्टड वर्कआउट करना चाहती हैं तो एक बार पूजा का वर्क आउट विडियो भी जरूर देख ही लें ।
बाकि के सह कलाकारो ने अपने काम को सिर्फ काम की तरह ही किया इसलिए चर्चा जरुरी नहीं ,फिल्म का ग्राफिक्स वर्क भी कमजोर रहा, लाइटिंग माहौल बनाने में फेल हुई । रहमान साहब का म्यूजिक सिधु घाटी के सोने  जैसा ही खरा निकला उनके द्वारा गया हुआ गाना "तू है" आप हर युवा के मुह से या फिर  कार  में बजता सुन ही लेंगे और शायद गुनगुनाने भी लगें पारंपरिक संगीत को तैयार करने के मामले में  रहमान साहब को कोई पछाड़ नहीं सकता फिल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक ने फिल्म को खूब सम्हाला। फिल्म बनाने में और प्रमोशन में लगभग 115 करोड़ खर्च हुए सेटेलाइट और म्यूजिक के अधिकार बेचकर फिल्म ने रिलीज़ होने से पहले ही 60 करोड़ काम लिए अब देखना है आगे किस हद तक फिल्म सफल हो पाती  हैं .... बात अगर समाज को मोहनजोदड़ो शहर से परिचित करवाने की या फिर सिंधु सभ्यता के पास ले जाने की करें तो कई हद तक ही फिल्म ले जा पाई । लव स्टोरी सिंपल रही, गनीमत यह रही की फिल्म का हीरो सरवन (ऋतिक रौशन ) के पिता के कातिल का पता चल गया..... नहीं तो बाहुबली की तरह इंतज़ार करना पड़ता और सोशल मीडिया पर वही घिसा-पिटा जोक भी झेलना पड़ता । फिल्म एक ही बार में खत्म हो गई इसलिए कई हद तक रियलिटी को छू पाई। परिवार के साथ एक बार मूवी देखने जरूर जाये क्योंकि  आपको और आपके बच्चों को हमारी संस्कृति की नींव से परिचित होना जरूरी है ,वहां  के सभ्य लोग आज भी कही न कही आपके हमारे अंदर जीवित हैं ,धर्म के प्रति सम्मान प्रकृति की पूजा सिंधु घाटी की रग - रग में था उस सभ्यता ने हमें बहुत कुछ दिया है सामूहिक उत्सव दिऐ  है ,कला दी है ,नटराज दिया है कास्तकारी ,शिल्पकारी ,स्वछता दी है और सभ्य समाज भी ।  इतिहास से परिचित होना हर आम और ख़ास आदमी को, खासकर आज की नई  पीढ़ी को  बहुत जरूरी है।  इतिहास की संस्कृति  मैं वो है जो आज नहीं  है ,अगर आप जीवन अपने आप को खोज रहें है तो एक बार रु ब रु हो जाइये भारत के इतिहास से, क्योंकि तस्वीर भारतीय इतिहास की बहुत खूबसूरत है । 


टिप्पणियाँ

  1. समीक्षा की लय को पकड़ते दिख रहे हो, शैली भी चुटीली और यथासंभव मनोरंजक है। पर तथ्यों के गहराई से विवेचन करने की अभी दरकार है। मसलन इतिहास को समझने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि सिर्फ पृष्ठभूमि वो है और उस सभ्यता के प्राप्त अवशेषों को जोड़-तोड़ एक कहानी रचने की कोशिश की है, पात्र और कथा चित्रण काल्पनिक है जिसका उस संस्कृति सभ्यता से कोई लेना देना नहीं। किन्तु गोवारिकर की कल्पना शक्ति की तारीफ की जनि चाहिए जो विदेशी प्रभाव से परे अपनी मिट्टी से कहानी उठाते हैं। और ये उनकी दूसरी ऐतिहासिक नहीं बल्कि चौथी ऐतिहासिक फ़िल्म है लगान और खेलें हम जी जान से भी ऐतिहासिक फ़िल्में थी। इसी तरह कई और जगह भी गहराई से विवेचना अपेक्षित है जो की सतत् स्वाध्याय से ही संभव है। बहरहाल प्रयास करना जरुरी है जो तुम कर रहे हो। keep reading, keep writing.

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